खेतों में माटी ढोती, इक अलहड़ सी बाला ने,
घर आ उतार कुदाल, माँ से कुछ ऐसे बोली ।
पेट क्षुधा के हाथों शोषित शैशव ने,
देख महल के ख्वाबों को, अपना मुंह कुछ ऐसे खोली ।
माँ वो कुंकुम, रोली, चूड़ी, कन्गन,
मुझको भी सारे श्रृंगार दिला दो ।
पायल की मीठी छम-छम बोली से,
मन मे भी मेरे, पलाश के टेशू सा इक बासंती शाम खिला दो ।
इन हाथों मे भी मेहँदी से कलियाँ और बूटे बनवा,
इक बार जरा महलों की गुड़िया सा माँ मुझको बनवा दो।
पहन जरा मैं भी परियों सी बन जाऊं,
माँ मुझको भी ऐसी इक चोली सिलवा दो ।
मै भी इन पलकों को, घटा गगन सी स्याह बना लूँ ,
मेरे नयनों मे भी अंजन भर माँ मुझको सजवा दो ।
अपनी जुल्फों को उन्मुक्त हवा मे, मै भी लहरा लूँ,
मेरे सांवल अधरों को भी माँ, इक बार जरा सिन्दूरी रन्ग पिलवा दो ।
मेरी भी थोड़ी रंगत निखरा दे,
ऐसी ख्वाब दिखाने वाली, जन्नत की परियों से माँ मुझको मिलवा दो।
अपनी काया देख जरा मै भी खुद को भरमा लूँ,
अब की बार हाट से माँ मुझको, कोई ऐसी एक दर्पण दिलवा दो।
सुन सब नम आँखों से, माँ ने बिटिया से कुछ ऐसे बोली,
घर का राज धीरे-धीरे, बातों ही बातों मे उसने यूं कह खोली ।
बिटिया पगार के पैसों से ,
कल काम को जा पायें, इतनी ही ताकत आ पाती है ।
तू बतला ना, चोली मैं कैसे सिलवाऊँ ?,
इस आँचल से तो, मेरी ही छाती पूरी ना ढक पाती है।
मजदूरी के इन तेरे पैसों से,
आँखें तेरी क्रंदन करते सूख ना जाये, बस इतनी ही नम हो पाती है।
तेरे ख़्वाबों को, दोष भला मैं क्या दूँ ? बिटिया,
शापित बचपन तेरा, मेरे ही हाथों शोषित होते जाती है ।
मेरे हाथों के ये चूडी कंगन ,
देखो ना इस माँस में कब से धँसे हुये हैं ।
विवाह के रस्मों को इसने देखे हैं ,
तेरे भ्रुण के साक्ष्य भी इसमे जब से बसे हुये हैं ।
नख से शिख तक सौन्दर्य का बिटिया मुझको,
विवाह के बाद का कोई एक पल याद नही ।
दर्पण मे प्रतिबिम्ब भला मैने भी बरसों से कहां देखी ?,
मै तो दोपहरी छाँवों मे केश सँवारती, चख ली जीवन का स्वाद वहीं ।
पायल बिछुआ बेच कुदाली से,
बिटिया हमने श्रृंगार किया है ।
बहते हुये माथे की बूंद पसीनों से,
हमने चंदन सा प्यार किया है ।
बिखरे केश, कुंकुम और अधरों की लाली का ,
रवि की रंग बदलती किरणों के संग हमने दीदार किया है ।
द्वंद लड़ा करने वाले, परियों सा ख्वाब ना देखा करते बिटिया,
हमने तो काँधे पर उठा बोझ,
पैगम्बर बन शिव सा जग का उद्धार किया है ।
मंगलवार, 30 जून 2009
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